इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड कक्षा 12 हिन्दी के गद्य भाग के पाठ बारह ‘तिरिछ (Tirichh Class 12th Hindi Solution Notes)’ को पढ़ेंगे।
12. तिरिछ
लेखक- उदय प्रकाश
लेखक परिचय
जन्म- 1 जनवरी 1952
जन्म स्थान : सीतापुर, अनूपपुर, मध्य प्रदेश
माता-पिता : बी. एससी. एम.ए. (हिंदी), सागर विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश।
कृतियाँ- दरियाई घोड़ा, तिरिछ, और अंत में प्रार्थना, पॉल गोमरा का स्कूटर, पीली छतरी वाली लड़की, दत्तात्रेय के दुख, अरेबा-परेबा, सुनो कारीगर (कविता संग्रह), ईश्वर की आँख। (निबंध) लेखक उदय प्रकाश अनेक धारावाहिकों और टी.वी. फिल्मों के स्क्रिप्ट लिखे।
तिरिछ क्या है ?
यह एक जहरीला छिपकली की एक प्रजाति है जिसका काटना बहुत खतरनाक होता है जिससे बचना मुश्किल हो जाता है। जब इस छिपकली से नजर मिलती है, तो वह काटने के लिए दौड़ती है।
Bihar Board Tirichh Class 12th Hindi Solution Notes
पाठ परिचय
इस लेख में कवि एक घटना का वर्णन करते हुए अपने पिता से संबंधित हैं। इस घटना से उनके सपनों और शहर से जुड़ी इच्छाओं का संबंध भी है। शहर के प्रति उन्हें जन्मजात भय होता है जिससे भी उन्हें बहुत संबंध होता है। उस समय उनके पिता की उम्र 55 साल थी। उनका शरीर दुबला था। सफेद बालों के साथ सूखी रूई उनके सिर पर रखी गई थी। दुनिया उन्हें जानती थी और उन्हें सम्मान देती थी। कवि को उनके संतान होने पर गर्व था।
लेखक को साल में एक बार उनके पिताजी टहलाने बाहर ले जाते थे। जब वे यात्रा पर निकलते तो पहले वे तंबाकू मुंह में भर लेते थे। तंबाकू के कारण उन्हें कुछ बोलने में असमर्थ थे और वे चुप रहते थे। मैं और मेरी माँ दोनों पिताजी के लिए सुखी जीवन की कोशिश करते थे। उनकी दुनिया रहस्यमय थी, लेकिन हमारे घर और हमारे जीवन के कुछ समस्याओं का हल पिताजी ही करते थे। लेखक अपने पिता पर ना सिर्फ़ गर्व करते थे बल्कि उनसे प्यार भी करते थे और उनकी आँखों में डर भी था। उन्हें ऐसा लगता था कि वे किसी मजबूत किले में रह रहे हों। पिताजी वास्तव में एक मजबूत किला जैसे होते थे। हम सभी उनके परकोटे पर खेलते थे और दौड़ते थे, यह भूलकर कि उन्होंने कितने संघर्ष किए हैं। रात में मैं गहरी नींद में सोता था। लेकिन एक दिन शाम को जब पिताजी टहलते हुए घर आए, तो उनके टखने में पट़टी बँधी थी। थोड़ी देर में गांव के कई लोग वहाँ आ गए। पता चला कि जंगल में तिरिछ ने पिताजी को काट लिया था।
लेखक बताते हैं कि वह एक बार तिरिछ को देखा था जब वह दोपहर में तालाब के किनारे चट्टानों के बीच से निकल रहा था और तालाब के पानी पीने जा रहा था। उनके साथ थानू भी था।
थानू ने लेखक को बताया कि तिरिछ काले नाग से ज्यादा खतरनाक होते हैं। थानू ने बताया कि जब तिरिछ पीछे पड़े तो सीधे नहीं भागना चाहिए। टेढ़ा-मेढ़ा चक्कर काटते हुए, गोल-मोल भागना चाहिए। जब आदमी तेजी से भागता है तो वह अपने पैरों के निशान के साथ-साथ जमीन पर छोड़ता हुआ अपनी गंध भी छोड़ जाता है। तिरिछ इस गंध को ध्वनित करते हुए भागता है। थानू ने बताया कि तिरिछ को चकमा देने के लिए आदमी को पहले तेजी से कुछ दूर दौड़ना चाहिए और फिर कुछ लंबी-लंबी छलांग लगानी चाहिए। तिरिछ सूंघ कर उस जगह पर पहुँचेगा जहाँ पैर के निशान होंगे और वहाँ से तेजी से भागना शुरू कर देगा। यदि आदमी चलते-फिरते छलांग लगाता है, तो तिरिछ अलग-अलग दिशाओं में भटकता रहेगा और जब तक वह अगले पैर के निशान और उसमें बसी गंध नहीं मिल जाती, वह उलझन में रहेगा।
लेखक को तिरिछ के बारे में और दो बातें पता थी। एक यह कि जैसे ही तिरिछ किसी को काटता है, वैसे ही वहाँ से भाग जाता है और पेशाब करता है जिसमें लोट जाता है। अगर तिरिछ ऐसा कर देता है तो आदमी बच नहीं सकता। अगर उसे बचना होता है तो वह खुद को किसी नदी, कुएं या तालाब में डुबकी लगा लेना चाहिए जिससे पहले तिरिछ ने उसे काटा होगा या फिर तिरिछ को ऐसा करने से पहले ही उसे मार देना चाहिए।
दूसरी बात है कि तिरिछ काटने के लिए वह तभी दौड़ता है, जब उससे नजर मिल जाती है। तिरिछ को देखने पर कभी आँखें मिलाने की नहीं।
लेखक कहते हैं कि उन्हें तमाम बच्चों की तरह तिरिछ से बहुत डर लगता था। उनके सपने में दो ही पात्र थे – एक हाथी और दूसरा तिरिछ। हाथी दौड़ता-दौड़ता थक जाता था और वह बच जाता था, लेकिन तिरिछ कहीं भी मिल सकता था। उसके लिए कोई निश्चित स्थान नहीं था। कवि सपने में उससे बचने की कोशिश करता था, लेकिन वह बच नहीं पाता था और चिल्लाता, रोता था। उसने पिताजी, थानेदार या माँ को पुकारा, फिर उसे यह जानकर आश्चर्य होता था कि यह सपना ही था।
लेखक की माँ बताती हैं कि वे सोते समय बोलने और चिल्लाने की आदत रखते हैं। कई बार लेखक ने उन्हें सपने में रोते हुए देखा है। लेखक को यकीन होता है कि उसी तिरिछ ने पिताजी को काटा था जो वे पहचानते थे और जो उनके सपनों में आता था।
लेकिन अच्छी बात यह हुई कि जैसे ही तिरिछ पिताजी को काटकर भागा, पिताजी ने उसे पीछे से मार डाला था। यह निश्चित हो गया था कि अगर वे उसे तुरंत नहीं मार पाते तो वह पेशाब करके उसमें जरूर लोट जाता। फिर पिताजी कोई बचाव नहीं कर पाते थे। कवि निश्चित थे कि पिताजी को कुछ नहीं हुआ होगा और उन्हें खुशी भी इस बात से हुई कि जो सपनों में उन्हें परेशान करता था, उसे पिताजी ने मार डाला है। अब वह बिना किसी डर के सपनों में सीटी बजा सकता था और घूम सकता था।
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लेखक के घर में उस रात भीड़ थी और झाड़-फूंक चल रही थी। जख्म पर दवा लगाई गई थी जिससे खून भी बाहर निकल गया था।
अगली सुबह पिताजी को शहर जाना था क्योंकि उनकी अदालत में पेशी थी। शहर के लिए दो किलोमीटर दूर निकलनेवाली सड़क से दिन भर में दो से तीन बसें जाती थीं। पिताजी सड़क तक पहुँचते ही एक ट्रैक्टर मिला जो उन्हें शहर ले जाने के लिए बसा था। ट्रैक्टर में बैठे लोग पास के गांव से थे और पिताजी उन्हें पहचानते थे।
रास्ते में तिरिछ वाली बात चल रही थी। पिताजी ने उन लोगों को अपना टखना दिखाया। बैठे हुए पंडित राम औतार ने बताया कि तिरिछ का जहर 24 घंटे बाद असर करता है। इसलिए अभी पिताजी को निश्चिंत नहीं होना चाहिए। कुछ लोगों ने कहा कि ठीक किया कि उसे मार दिया। लेकिन उसी वक्त उसे जला भी देना चाहिए। वे लोग कहते थे कि रात में चंद्रमा की रोशनी में बहुत से कीड़े-मकोड़े दुबारा जी उठते हैं। ट्रैक्टर के लोगों को शक था कि कहीं ऐसा न हो कि रात में जी उठने के बाद तिरिछ मूत्र करके उसमें लोट जाए।
यदि पिताजी उस तिरिछ की लाश को जलाने के लिए ट्रैक्टर से उतरते हुए, गांव लौटते तो गैर-जमानती वारंट के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता और हमारा घर हमसे छीन लिया जाता। इसके बाद अदालत हमारे खिलाफ हो जाती।
लेकिन पंडित राम और एक वैद्य भी वहाँ थे। उन्होंने एक तरीका सुझाया था, जिससे वे तिरिछ के जहर से बच सकते थे और पेशी में हाजिर भी हो सकते थे। उन्होंने कहा था कि विष ही विष की औषधि होता है। यदि धतूरे के बीज मिल जाएं तो वे तिरिछ के जहर की कटाई के लिए उन्हें तैयार कर सकते हैं।
अगले गाँव सुलतानपुर में ट्रैक्टर रोका गया था और एक खेत से धतूरे के बीजों को पीसकर उन्हें खिलाया गया। लेखक के पिताजी को चक्कर आने लगा था और उनका गला सुखने लगा। ट्रैक्टर दस बजकर पांच-सात मिनट के आसपास शहर से लेखक के पिताजी को छोड़ कर गया। रास्ते में एक होटल था लेकिन उन्होंने उस होटल में पानी नहीं पिया क्योंकि होटल वालों ने पिछली बार उन्हें ठण्डा पानी सर्व किया था। उसने गाली दी थी। इसलिए वह एक गाँव के लड़के रमेश दत्त के पास गया, जो भूमि विकास सहकारी बैंक में क्लर्क था।
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कवि कहते हैं कि पिताजी के दिमाग में शायद सिर्फ बैंक की बात ही रही होगी, इसलिए वे अचानक स्टेट बैंक देखकर रुक गए होंगे। पिताजी सोचते होंगे कि रमेश से पानी भी मांगा जा सकता है और उनसे अदालत जाने का रास्ता भी पूछा जा सकता है। पिताजी ने बैंक में सीधे कैशियर के पास जाकर अपना मुद्दा पेश किया। कैशियर को उनके धतूरे के सेवन के कारण डर लग गया। जब उन्होंने चिल्लाकर मदद के लिए सुरक्षा गार्ड बुलाया, तब उसी समय पिताजी को अपने पैसों और अदालती कागजातों से वंचित कर दिया गया। इसलिए पिताजी को अब यह सोचना पड़ा कि अदालत जाने से क्या होगा। इसलिए वह शहर से बाहर निकलने का फैसला लिया। लगभग सवा एक बजे वे पुलिस थाने पर पहुंचे जो शहर के बाहरी छोर पर स्थित था। उनके कपड़े गार्ड ने फाड़ दिए थे, उनकी कमीज नहीं थी और पैंट फट गई थी।
पिताजी थाने के एसएचओ के पास पहुंचे तो उसने सिपाही से कहकर उन्हें बाहर फेंकवा दिया, क्योंकि वे पागल समझे जा रहे थे। सिपाही ने उन्हें घसीटते हुए बाहर फेंक दिया। बाद में एसएचओ को बताया गया कि वे रामस्थरथ प्रसाद भूतपूर्व हेडमास्टर हैं और उन्हें थाने में कुछ देर बैठने दिया जाना चाहिए था। सवा दो बजे पिताजी को सबसे संपन्न कोलोनी इतवारी कोलोनी में घसीटते हुए देखा गया। उन्हें लड़के पागल और बदमाश समझकर तंग कर रहे थे। इतवारी कोलोनी के लड़कों का एक झुंड भी उनके पीछे लग गया था।
पिताजी ने एक गलती की थी जब उन्होंने एक ढेला उठाकर भीड़ पर चला दिया था, जिससे एक 7-8 साल के लड़के को टक्कर लग गई थी। उसको कई टाँके भी लग गए थे। तब से भीड़ उग्र हो गई थी और उन्हें पत्थरों से मारा जा रहा था। पिताजी ढाबे के सामने ही एक भीड़ में फंस गए थे जो उन्हें मार रही थी। ढाबे का मालिक सतनाम सिंह ने पंचनामा और अदालत से बचने के लिए अपना ढाबा जल्दी से बंद करके फिल्म देखने चला गया। समय लगभग छह बजे था और सिविल लाइंस की सड़क पर मोचियों की दुकानों की एक कतार बनी थी।
पिताजी ने एक मोची गणेशवा की गुमटी में अपना सर घुसेड़ दिया था। उनके शरीर पर चड्डी भी नहीं थी और वे घुटनों के बल चल रहे थे जैसे कोई चौपाया हो। उनके शरीर पर कालिख और कीचड़ लगा हुआ था और जगह-जगह चोटें भी आई थीं। गणेशवा लेखक के गांव के पास का मोची था और उसने बताया कि वह बहुत डर गया था और मास्टर साबह को पहचान नहीं पाया था। उनका चेहरा भयभीत हो गया था और वह चिन्हाई में नहीं आ रहा था। मैं भयभीत होकर गुमटी से बाहर निकल आया और शोर मचाने लगा।
जब लोग गणेशवा की गुमटी के अंदर झांके, तो वहाँ उसके सबसे अंत में, टूटी फूटी जूतों, चमड़ों के टुकड़ों, रबर और चिथड़ों के बीच पिताजी डूबे हुए थे। उनकी सांसें थोड़ी-थोड़ी चल रही थीं। उन्हें खींच कर बाहर निकाल दिया गया, उसी वक्त गणेशवा ने उन्हें पहचान लिया। गणेशवा ने उनके कान में कुछ बोला, लेकिन कुछ… वे बोल नहीं पा रहे थे। बहुत देर बाद उन्होंने ‘राम स्वारथ प्रसाद’ और ‘बकेली’ जैसी कुछ बातें कहीं। फिर वे चुप हो गए। पिताजी की मृत्यु 17 मई, 1972 को सवा छह बजे के आसपास हुई थी।
पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पता चला कि उनकी हड्डियों में कई जगह फ्रैक्चर था, दाईं आँख पूरी तरह से फूट चुकी थी, कॉलर बोन टूटा हुआ था। उनकी मृत्यु मानसिक दबाव और अधिक रक्तस्त्राव के कारण हुई थी। रिपोर्ट के अनुसार उनका अमाशय खाली था, पेट में कुछ नहीं था। इससे यह स्पष्ट हुआ कि धतूरे के बीजों का कढ़ा उल्टियों द्वारा पहले ही निकल चुका था।
लेखक अब तिरिछ का सपना नहीं देखते। उन्हें हमेशा यह सवाल परेशान करता है कि आखिरकार उन्हें अब तिरिछ का सपना क्यों नहीं आता है।
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