इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड कक्षा 10 के विज्ञान के पाठ 6 जैव प्रक्रम ( Jaiv Prakram Class 10th Solutions) को पढ़ेंगे।
6. जैव प्रक्रम
जैव प्रक्रम- वे सारी क्रियाएँ जिनके द्वारा जीवों का अनुरक्षण होता है, जैव प्रक्रम कहलाती हैं।
पोषण- वह विधि जिससे जीव पोषक तवों को ग्रहण कर उनका उपयोग करते हैं, पोषण कहलाता है।
पोषण की विधियाँ
जीवों में पोषण मुख्यतः दो विधियों द्वारा होता हैं।
1. स्वपोषण
2. परपोषण
स्वपोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं निर्माण करते हैं। स्वपोषण कहलाता है।
स्वपोषी- पोषण की वह प्रक्रिया जिसमें जीव अपने भोजन के लिए अन्य जीवों पर निर्भर न रहकर अपना भोजन स्वयं संश्लेषित (निर्माण) करते हैं, स्वपोषी कहलाते हैं। अर्थात जिस जीव में स्वपोषण पाया जाता है, उसे स्वपोषी कहते हैं। जैसे- हरे पौधे।
परपोषण- परपोषण वह प्रक्रिया है जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित न कर किसी-न-किसी रूप में अन्य स्त्रोतों से प्राप्त करते हैं।
परपोषी- वे जीव जो अपने भोजन के लिए अन्य स्त्रोतों पर निर्भर रहते हैं, उसे परपोषी कहते हैं। जैसे- गाय, अमीबा, शेर आदि।
परपोषण के प्रकार-
परपोषण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं-
1. मृतजीवी पोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपने भोजन के लिए मृत जंतुओं और पौधों के शरीर से, अपने शरीर की सतह से घुलित कार्बनिक पदार्थों के रूप में अवशोषित करते हैं। मृतजीवी पोषण कहलाते हैं। जैसे- कवक बैक्टीरिया तथा कुछ प्रोटोजोआ।
2.परजीवी पोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपने पोषण के लिए दूसरे प्राणी के संपर्क में, स्थायी या अस्थायी रूप से रहकर, उससे अपना भोजन प्राप्त करते हैं। परजीवी पोषण कहलाते हैं। जैसे-कवक, जीवाणु, गोलकृमि, हुकवर्म, मलेरिया परजीवी आदि।
3. प्राणिसम पोषण- वैसा पोषण जिसमें प्राणी अपना भोजन ठोस या तरल के रूप में जंतुओं के भोजन ग्रहण करने की विधि द्वारा ग्रहण करते हैं, प्राणी समपोषण कहलाते हैं। जैसे- अमीबा, मेढ़क, मनुष्य आदि।
प्रकाशसंश्लेषण क्या है ?
सूर्य की ऊर्जा की सहायता से प्रकाशसंश्लेषण में सरल अकार्बनिक अणु- कार्बन डाइऑक्साइड और जल का पादप-कोशिकाओं में स्थिरीकरण कार्बनिक अणु ग्लूकोज (कार्बोहाइड्रेट) में होता है।
अर्थात्
पेड़-पौधे सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं, जिसे प्रकाशसंश्लेषण कहते हैं।
प्रकाशसंश्लेषण के फलस्वरूप जल के टूटने से ऑक्सीजन निकलता है।
प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक पदार्थ-
प्रकाश संश्लेषण के लिए चार पदार्थों की आवश्यकता होती हैं-
1. पर्णहरित या क्लोरोफिल, 2. कार्बनडाइऑक्साइड, 3. जल और 4. सूर्य प्रकाश
क्लोरोफिल के कारण पत्तियों का रंग हरा होता है।
उपापचय- सजीव के शरीर में होनेवाली सभी प्रकार की रासायनिक क्रियाएँ उपापचय कहलाती है। जैसे- अमीनो अम्ल से प्रोटीन का निर्माण होना, ग्लूकोज से ग्लाइकोजेन का निर्माण होना आदि।
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अमीबा में पोषण
अमीबा एक सरल प्राणीसमपोषी जीव है। यह मृदुजलीय, एककोशीकीय तथा अनिश्चित आकार का प्राणी है। इसका आकार कूटपादों के बनने और बिगड़ने के कारण बदलता रहता है।
अमीबा का भोजन शैवाल के छोटे-छोटे टुकड़े, बैक्टीरिया, डायटम, अन्य छोटे एककोशिकीय जीव तथा मृत कार्बनिक पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़े इत्यादि हैं।
अमीबा में पोषण अंतर्ग्रहण, पाचन तथा बहिष्करण प्रक्रियाओं द्वारा पूर्ण होता है।
अमीबा में भोजन के अंतर्ग्रहण के लिए मुख जैसा कोई निश्चित स्थान नहीं होता है, बल्कि यह शरीर की सतह के किसी भी स्थान से हो सकता है।
अमीबा जब भोजन के बिल्कुल समीप होता है तब अमीबा भोजन के चारों ओर कूटपादों का निर्माण करता है। कूटपाद तेजी से बढ़ते हैं और भोजन को पूरी तरह घेर लेते हैं। धीरे-धीरे कूटपादों के सिरे तथा फिर पार्श्व (पार्श्व) आपस में जुड़ जाते हैं। इस तरह एक भोजन-रसधानी का निर्माण हो जाता है जिसमें भोजन के साथ जल भी होता है।
भोजन का पाचन भोजन रसधानी में ही एंजाइमों के द्वारा होता है। अपचे भोजन निकलने के लिए शरीर के किसी भाग में अस्थायी छिद्र का निर्माण होता है जिससे अपचा भोजन बाहर निकल जाता है।
मनुष्य का पाचनतंत्र
वैसे अंग जो भोजन पचाने में सहायता करते हैं। उन्हें सामुहिक रूप से पाचन तंत्र कहते हैं।
आहारनाल और संबंधित पाचक ग्रंथियाँ और पाचन क्रिया मिलकर पाचनतंत्र का निर्माण करते हैं।
मनुष्य तथा सभी उच्च श्रेणी के जंतुओं में भोजन के पाचन के लिए विशेष अंग होते हैं जो आहारनाल कहलाते हैं।
आहारनाल- मनुष्य का आहारनाल एक कुंडलित रचना है जिसकी लंबाई करीब 8 से 10 मीटर तक की होती है। यह मुखगुहा से शुरू होकर मलद्वार तक फैली होती है।
मुखगुहा- मुखगुहा आहारनाल का पहला भाग है। पाचन मुखगुहा से प्रारंभ होता है। मुखगुहा एक खाली जगह होता है जिसमें एक जीभ, तीन जोड़ा लार ग्रंथि तथा 32 दांत पाये जाते हैं।
मुखगुहा को बंद करने के लिए दो मांसल होंठ होते हैं।
जीभ के ऊपर कई छोटे-छोटे अंकुर होते हैं, जिसे स्वाद कलियाँ कहते हैं। यह भोजन के विभिन्न स्वादों जैसे मीठा, खारा, खट्टा, कड़वा आदि का अनुभव कराता है।
मनुष्य के मुखगुहा में तीन जोड़ी लार ग्रंथियाँ पाई जाती है, जिससे प्रतिदिन डेढ़ लीटर लार का स्त्राव होता है।
लार में मुख्य रूप से लाइसोजाइम, एमीलेस या एमाइलेज तथा टायलीन नामक एंजाइम पाए जाते हैं। सबसे अधिक मात्रा में टायलीन नामक एंजाइम निकलता है।
मुखगुहा में लार का कार्य-
1. यह मुखगुहा को साफ रखती है।
2. भोजन को चिपचिपा और लसलसा बना देता है।
3. यह भोजन में उपस्थित किटाणुओं को मार देता है।
4. यह स्टार्च को शर्करा (कार्बोहाइड्रट) में बदल देता है।
दाँत
दाँत में सर्वाधिक मात्रा में कैल्शियम पाया जाता है।
मानव दाँत के दो परत होता है। बाहरी परत इनामेल कहलाता है जबकि आंतरिक पर डेंटाइन कहलाता है।
मानव शरीर का सबसे कठोर भाग दाँत का इनामेल होता है जो कैल्शियम फॉस्फेट का बना होता है। इनामेल दाँतों की रक्षा करता है।
मानव दाँत चार प्रकार के होते हैं-
1. इनसाइजर (8), 2. केनाइन (4), 3. प्रीमोलर (8) और 4. मोलर (12)
एक व्यस्क मनुष्य के शरीर में 32 दाँत होते हैं। दुध के दाँतों की संख्या 20 होती है।
ग्रसनी- मुखगुहा का पिछला भाग ग्रसनी कहलाता है। इसमें दो छिद्र होते हैं।
1. निगलद्वार, जो आहारनाल के अगले भाग ग्रासनली में खुलता है। तथा
2. कंठद्वार, जो श्वासनली में खुलता है। कंठद्वार के आगे एक पट्टी जैसी रचना होती है, जो एपिग्लौटिस कहलाता है। मनुष्य जब भोजन करता है तब यह पट्टी कंठद्वार को ढँक देती है, जिससे भोजन श्वासनली में नहीं जा पाता है।
ग्रासनली- यह मुखगुहा को अमाशय से जोड़ने का कार्य करता है। यह नली के समान होता है। मुखगुहा से लार से सना हुआ भोजन निगलद्वार के द्वारा ग्रासनली में पहुँचता है। भाजन के पहुँचते ही ग्रासनली की दिवार में तरंग की तरह संकुचन या सिकुड़न और शिथिलन या फैलाव शुरू हो जाता है। जिसे क्रमाकुंचन कहते हैं। ग्रासनली में पाचन की क्रिया नहीं होती है। ग्रासनली से भोजन अमाशय में पहुँचता है।
आमाशय- यह एक चौड़ी थैली जैसी रचना है जो उदर-गुहा के बाईं ओर से शुरू होकर अनुप्रस्थ दिशा में फैली होती है।
आमाशय में प्रोटीन के अतिरिक्त भोजन के वसा का पाचन करता है।
अमाश्य के तीन भाग होते हैं- कार्डिएक, फुंडिक और पाइलेरिक।
अमाश्य से हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का स्त्राव होता है, जो कीटाणुओं को मार देता है और भोजन को अम्लीय बना देता है।
अमाश्य में जठर ग्रंथि पाई जाती है, जिससे जठर रस निकलता है। जठर रस में रेनिन और पेप्सिन पाया जाता है। रेनिन दूध को दही में बदल देता है तथा पेप्सीन प्रोटीन का पाचन करता है। प्रोटीन को पेप्टोन में बदल देता है।
भोजन अब गाढ़ लेई की तरह हो गया है, जिसे काइम कहते है। काइम अमाशय से छोटी आँत में पहुँचता है।
छोटी आँत- छोटी आँत आहारनाल का सबसे लंबा भाग है। यह बेलनाकार रचना है। छोटी आँत में ही पाचन की क्रिया पूर्ण होती है। मनुष्य में इसकी लंबाई लगभग 6 मीटर तथा चौड़ाई 2.5 सेंटीमीटर होती है।
शाकाहारी जन्तुओं में छोटी आँत की लंबाई अधिक और मांसाहारी जन्तुओं में छोटी आँत की लंबाई कम होती है।
छोटी आँत के तीन भाग होते हैं-ग्रहणी, जेजुनम तथा इलियम।
ग्रहणी छोटी आँत का पहला भाग होता है। जेजुनम छोटी आँत का मध्य भाग होता है। छोटी आँत का अधिकांश भाग इलियम होता है।
पचे हुए भोजन का अवशोषण छोटी आँत में ही होता है।
छोटी आँत में भोजन का पाचन पित्त, अग्न्याशयी रस तथा आंत्र-रस के स्त्राव से होता है।
यकृत- यह शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है जो उदर के ऊपरी दाहिने भाग में अवस्थित है। यकृत कोशिकाओं से पित्त का स्त्राव होता है। स्त्रावित पित्त पित्ताशय नामक एक छोटी थैली में आकर जमा रहता है।
पित्ताशय- इसमें यकृत द्वारा बनाया गया पित्त आकर जमा रहता है। इसमें पित्त का निर्माण नहीं होता है। पित्त भोजन को क्षारीय बना देता है क्योंकि पित्त क्षारीय होता है। इसका रंग गाढ़ा और हरा होता है। यह एंजाइम न होते हुए भी भोजन के पाचन में सहायक है।
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पित्त के दो मुख्य कार्य है-
1. पित्त अमाशय से ग्रहणी में आए अम्लीय काइम की अम्लीयता को नष्ट कर उसे क्षारीय बना देता है ताकि अग्न्याशयी रस के एंजाइम उस पर क्रिया कर सके।
2. पित्त के लवणों की सहायता से भोजन के वसा के विखंडन तथा पायसीकरण होता है ताकि वसा को तोड़नेवाले एंजाइम उस पर आसानी से क्रिया कर सके।
अग्न्याशय- आमाशय के ठीक नीचे तथा ग्रहणी को घेरे पीले रंग की एक ग्रंथि होती है जो अग्न्याशय कहलाती है।
अग्नाशय से तीन प्रकार के इंजाइम निकलते हैं। इन तीनों को सामूहिक रूप से पूर्ण पाचक रस कहते हैं क्योंकि यह भोजन के सभी अवयव को पचा सकते हैं।
इससे ट्रिप्सीन, एमाइलेज और लाइपेज नामक इंजाइम स्त्रावित होते हैं।
ट्रिप्सीन- यह प्रोटीन को पचाकर पेप्टाइड में बदल देता है।
एमाइलेज- यह स्टार्च को शर्करा में तोड़ देता है।
लाइपेज- यह पित्त द्वारा पायसीकृत वसा को तोड़कर ग्लिसरोल तथा वसीय अम्ल में बदल देता है।
पचे हुए भोजन का अवशोषण इलियम के विलाई के द्वारा होता है। भोजन अवशोषण के बाद रक्त में मिल जाते हैं। रक्त शरीर के विभिन्न भागों तक वितरित कर देते हैं।
छोटी आँत में काइम (भोजन) और भी तरल हो जाता है, जिसे चाइल कहा जाता है।
बड़ी आँत- छोटी आँत आहारनाल के अगले भाग बड़ी आँत में खुलती है। बड़ी आँत दो भागों में बँटा होता है। ये भाग कोलन तथा मलाशय या रेक्टम कहलाते हैं।
छोटी आँत और बड़ी आँत के जोड़ पर ऐपेंडिक्स होती है। मनुष्य के आहारनाल में ऐपेंडिक्स का कोई कार्य नहीं है।
जल का अवशोषण बड़ी आँत में होता है।
अंत मे अपचा भोजन मल के रूप में अस्थायी तौर पर रेक्टम या मलाशय में जमा होता रहता है जो समय-समय पर मलद्वार के रास्ते शरीर से बाहर निकलते रहता है।
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मुख्य बिन्दुएँ–
प्रकाश संश्लेषण की क्रिया हरे पौधों में होती है।
ग्लूकोज के एक अणु में ऑक्सीजन के 6 परमाणु होते हैं।
मनुष्य एवं अन्य मांसाहारी जीव सुल्युलोज का पाचन नहीं करते हैं।
दाँत का सबसे ऊपरी परत को इनामेल कहते हैं।
मुखगुहा में आहार का कार्बोहाइड्रेट भाग का पाचन होता है।
स्वपोषी पोषण के लिए पर्णहरित (क्लोरोफिल, सूर्य का प्रकाश, कार्बन डाइऑक्साइड और जल) आवश्यक है।
प्रकाश संश्लेषण क्रिया में ऑक्सीजन एक उत्पाद के रूप में बाहर निकलता है।
क्लोरोफिल में मैग्नेशियम पाया जाता है।
क्लोरोफिल वर्णक का रंग हरा होता है।
कवक में मृतजीवी पोषण पाया जाता है।
पित्तयों में गैसों का आदान-प्रदान रंध्रों द्वारा होता है।
शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथी यकृत है।
प्रकृति में ऑक्सीजन का संतुलन प्रकाश-संश्लेषण द्वारा बना रहता है।
पित्त यकृत से स्त्रावित होता है।
हरे पौधे स्वपोषी होते हैं।
छोटी आंत या क्षुद्रांत्र आहारनाल का सबसे लंबा भाग है।
ट्रिप्सिन एंजाइम प्रोटिन को पचाने का कार्य करता है।
मनुष्य के आहारनाल में एपेंडिक्स एक अवशेषी अंग है।
अमीबा में कूटपाद पाया जाता है।
अमीबा अपना भोजन कूटपाद द्वारा पकड़ता है।
जब किसी अभिक्रिया के समय किसी पदार्थ में ऑक्सीजन की वृद्धि होती है, तो उसे उपचयन अभिक्रिया कहते हैं।
जब किसी अभिक्रिया के समय किसी पदार्थ में हाइड्रोजन की वृद्धि होती है, तो उसे अपचयन अभिक्रिया कहते हैं।
अम्ल का चभ्मान 7 से कम होता है।
सभी जीव-जंतुओं के लिए ऊर्जा का अंतिम स्त्रोत सूर्य है।
ग्लूकोज का रासायनिक सूत्र ब्6भ्12व्6है।
अमीबा में अधिकांश पोषण अंतर्ग्रहण द्वारा होता है।
क्लोरोफिल की उपस्थिति के कारण पौधे का रंग हरा होता है।
हाइड्रा में स्पर्शक पाया जाता है।
‘न्युक्लियस‘ शब्द रॉबर्ट ब्राउन के द्वार दी गई है।
प्रसिद्ध पुसतक ‘द माइक्रोग्राफिया‘ रॉबर्ट हुक के द्वारा लिखी गई है।
पौधों और कोशिकाओं का वैज्ञानिक अध्ययन कोशिका विज्ञान कहलाता है।
श्वसन- श्वसन उन सभी प्रक्रियाओं का सम्मिलित रूप है जिनके द्वारा शरीर में ऊर्जा का उत्पादन होता है।
यह ऊर्जा ए.टी.पी. जैसे विशेष रासायनिक बंधन में संगृहीत हो जाती है। संगृहीत ऊर्जा का उपयोग सभी जीव ए.टी.पी. के जलीय विघटन के द्वारा करते हैं।
श्वसन क्रिया में ग्लूकोज- अणुओं का ऑक्सीकरण कोशिकाओं में होता है। इसीलिए, इसे कोशिकीय श्वसन कहते हैं।
कोशिकीय श्वसन-यह मानव कोशिका के अंदर होता है। यह एक जटिल प्रक्रिया है जिसके द्वारा पाचन के फलस्वरूप बना ग्लूकोज कोशिका के अंदर टूट जाता है और हमें ऊर्जा प्राप्त होता है।
संपूर्ण कोशिकीय श्वसन का दो अवस्थाओं में विभाजित किया गया है-
1. अवायवीय श्वसन- यह कोशिकाद्रव्य में पूर्ण होता है। यह ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है। अतः इसे अनॉक्सी श्वसनन कहते हैं।
2. वायवीय श्वसन- यह माइटोकोण्ड्रिया में होता है। यह ऑक्सीजन के उपस्थिति में होता है। अतः इसे ऑक्सी श्वसन कहते हैं।
वायवीय श्वसन और अवायवीय श्वसन में क्या अंतर है ?
वायवीय श्वसन और अवायवीय श्वसन में मुख्य अंतर निम्नलिखित है-
1. वायवीय श्वसन ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है जबकि अवायवीय श्वसन ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है।
2. वायवीय श्वसन का प्रथम चरण कोशिकाद्रव्य में तथा द्वितीय चरण माइटोकॉण्ड्रिया में पूरा होता है जबकि अवायवीय श्वसन की पूरी क्रिया कोशिकाद्रव्य में होती है।
3. वायवीय श्वसन में अवायवीय श्वसन की तुलना में बहुत ज्यादा ऊर्जा मुक्त होती है।
पौधों में श्वसन-पौधों में श्वसन श्वसन-गैसों का आदान-प्रदान शरीर की सतह द्वारा विसरण विधि से होता है।
पेड़-पौधों में गैसों का आदान-प्रदान पत्तियों के रंध्रों के द्वारा होता है।
पौधों में श्वसन की क्रिया जंतुओं के श्वसन से किस प्रकार भिन्न है-
पोधों में श्वसन की क्रिया जंतुओं के श्वसन से निम्नलिखित प्रकार से भिन्न है-
1. पौधों के प्रत्येक भाग, अर्थात जड़, तना तथा पत्तियों में अलग-अलग श्वसन होता है।
2. जंतुओं की तरह पौधों में श्वसन गैसों का परिवहन नहीं होता है।
3. पौधों में जंतुओं की अपेक्षा श्वसन की गति धीमी हेती है।
जंतुओं में श्वसन
एककोशिकीय जीव जैसे अमीबा, पैरामीशियम में श्वसन कोशिका झिल्ली से विसरण विधि द्वारा होता है।
बहुकोशिकीय जीव हाइड्रा में श्वसन गैसों का आदान-प्रदान शरीर की सतह से विसरण के द्वारा होता है।
उच्च श्रेणी के जंतुओं में समान्यतः तीन प्रकार के श्वसन अंग होते हैं-
1. श्वासनली या ट्रैकिया
2. गिल्स तथा
3. फेफड़े
1. श्वासनली या ट्रैकिया-ट्रैकिया द्वारा श्वसन किटों, जैसे टिड्डा तथा तिलचट्टा में होता है।
2. गिल्स- गिल्स विशेष प्रकार के श्वसन अंग हैं जो जल में घुलित ऑक्सीजन का उपयोग श्वसन के लिए करते हैं। श्वसन के लिए गिल्स का होना मछलियों के विशेष लक्षण है। मछलीयों में गिल्स द्वारा श्वसन होता है।
3. फेफड़ा-वर्ग एंफीबिया (जैसे मेढ़क) में फेफड़े के अतिरिक्त त्वचा तथा गिल्स से भी श्वसन होता है।
रेप्टीलिया (जैसे सर्प, लिजर्ड, कछुआ तथा मगरमच्छ) तथा उच्चतम श्रेणी के वर्टिब्रेटा जैसे एवीज (पक्षी) तथा मैमेलिया (जैसे मनुष्य) में श्वसन सिर्फ फेफड़ों से होता है।
श्वसन अंग- मनुष्य में नासिका छिद्र, स्वरयंत्र या लैरिंक्स, श्वासनली या ट्रैकिया तथा फेफड़ा मिलकर श्वसन अंग कहलाते हैं।
मानव का श्वसन मार्ग- मानव जब श्वसन करता है तो वायु जिस मार्ग का अनुसरण करती है, तो उस मार्ग को ही श्वसन मार्ग कहा जाता है।
श्वसन मार्ग निम्नलिखित है-
1. नासिका छिद्र
2. ग्रसनी
3. स्वरयंत्र
4. श्वासनली
5. ब्रोंकाई (श्वसनिय)
6. ब्रोंकीयोलस (श्वसनिका)
7. वायुकोष
8. रूधिर
9. कोशिका
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डायफ्राम- यह वक्ष गुहा के नीचे तथा उदर गुहा के ऊपर पाया जाता है। यह संयोजी ऊतक का बना होता है। निःश्वसन में यह 75 प्रतिशत योगदान करता है।
डायफ्राम टूट जाने पर व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है।
1. नासिका छिद्र- नाक का भाग होता है, इसी भाग से वायु अन्दर जाती है।
2. ग्रसनी- यह नासिका छिद्र के नीचे और मुखगुहा के पीछे पाया जाता है। इस मार्ग से भोजन और वायु दोनों जाते हैं।
3. स्वरयंत्र- ग्रसनी कंठद्वार के ठीक नीचे एक छोटी रचना स्वरयंत्र में खुलती है। यह ग्रसनी के ठीक नीचे पाया जाता है। यह आवाज निकालने में सहायक होता है।
फेफड़ा- यह मानव के वक्षगुहा में पाया जाता है। यह मानव का मुख्य श्वसन अंग है। इसकी संख्या दो होती है। यह प्लूरल मेम्ब्रेन नामक झिल्ली द्वारा ढ़का होता है। फेफड़ा का कार्य रक्त को शुद्ध करना होता है अर्थात फेफड़ा रक्त में ऑक्सीजन मिलाकर उसे शुद्ध करता है।
यह सीने के 12 जोड़ी पसलियों के बीच स्थित होता है।
4. श्वासनली- इसके द्वारा वायु फेफड़े के अंदर जाती है। ट्रैकिया या श्वासनली आगे चलकर दो भागों में विभाजित हो जाती है, जिसे ब्रोंकाई कहते हैं। ब्रोंकाई आगे जाकर कई शाखाओं में विभाजित हो जाती है, जिसे ब्रोंकियोलस या श्वसनिका कहते हैं।
5. वायुकोष- श्वसनिका फेफड़े के अंदर पतली शाखाओं में बँट जाती है। ये शाखाएँ छोटी-छोटी गोल संरचना में विभाजित होती है। जिसे वायुकोष कहते हैं।
वायुकोष की संख्या 3×108 होती है।
श्वसन क्रिया- श्वसन दो क्रियाओं का सम्मिलित रूप है। पहली क्रिया में हवा नासिका से फेफड़े तक पहुँचती है जहाँ इसका ऑक्सीजन फेफड़े की दीवार में स्थित रक्त कोशिकाओं के रक्त में चला जाता है। इस क्रिया को प्रश्वास कहते हैं।
इसके विपरित, दूसरी क्रिया उच्छ्वास कहलाती है जिसके अंतर्गत रक्त से फेफड़े में आया कार्बन डाइऑक्साइड बची हवा के साथ नासिका से बाहर निकल जाता है।
श्वसन की दो अवस्थाएँ प्रश्वास तथा उच्छ्वास मिलकर श्वासोच्छ्वास कहलाती है।
फेफड़े में श्वसन गैसों का आदान-प्रदान- शरीर के विभिन्न भागों से ऑक्सीजनरहित रक्त फेफड़ा में पहुँचता है। रक्त में उपस्थित हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन से संयोग करके ऑक्सीहीमोग्लोबिन में परिवर्तित हो जाता है जो रूधिर परिसंचरण के माध्यम से शरीर के विभिन्न भागों तक कोशिकाओं में पहुँच जाता है। हीमोग्लोबीन ऑक्सीजन कोशिकाओं के दे देता है और कार्बनडाइऑक्साइड को अपने साथ बाँध लेता है। जो कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन कहलाता है। कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन परिसंचरण के माध्यम से फेफड़े में पहुँच जाता है। कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन अर्थात रक्त में घुला हुआ कार्बनडाइऑक्साइड फेफड़े के द्वारा नासिका से बाहर निकल जाता है।
- भोजन का पचना उपचयन अभिक्रिया है।
- टी०बी० निमोनिया श्वसनतंत्र से संबंधित है।
- अवायवीय श्वसन में इथाइल अल्कोहल और कार्बन डाइऑक्साइड बनता है। इस प्रक्रिया को किण्वन कहते हैं।
- ज्च्को कोशिका का ऊर्जा मुद्रा कहा जाता है अर्थात कोशिका की ऊर्जा को ।ज्च्कहते हैं।
- माइटोकॉण्ड्रिया में पायरुवेट के विखण्डन से कार्बन डाइऑक्साइड, जल तथा ऊर्जा प्राप्त होता है।
- निःश्वास द्वारा निकली वायु में ब्व्2 रहती है।
- वायवीय श्वसन से अधिक ऊर्जा मुक्त होता है।
- मछली का श्वसन अंग गिल्स है।
- पौधों में गैसों का आदान-प्रदान रंध्रों द्वारा होता है।
- तिलचट्टा में 20 जोड़े श्वास रंध्र पाये जाते हैं।
- श्वसन के अंतिम उत्पाद CO2, H2O और ऊर्जा है।
- पौधों में श्वसन जड़, तना तथा पत्तियों सभी में होता है।
उपयोगी पदार्थों को शरीर के प्रत्येक कोशिका तक पहुँचाना और अनुपयोगी पदार्थों को कोशिकाओं से निकालकार गंतव्य स्थान तक पहुँचाने की क्रिया को पदार्थों का परिवहन कहते हैं।
मानव शरीर में परिवहन मुख्य रूप से रक्त एवं लसिका के द्वारा होता है।
पौधों में पदार्थों का परिवहन
एककोशिकीय पौधों, जैसे क्लैमाइडोमोनास, यूग्लीना एवं सरल बहुकोशीकीय शैवालों में पदार्थों का परिवहन विसरण द्वारा होता है।
पौधों में परिवहन मुख्य रूप से जाइलम और फ्लोएम ऊतकों के द्वारा होता है।
जाइलम- यह जल-संवाहक ऊतक है। इसमें पाई जानेवाली वाहिकाएँ एवं वाहिनिकाएँ मुख्य रूप से जल एवं खनिज लवणों के स्थानांतरण में सहायक होती हैं।
फ्लोएम- यह संवहन बंडल का दूसरा जटिल ऊतक है तथा इसमें पाई जानेवाली चालनी नलिकाएँ का मुख्य कार्य पौधे के हरे भागों में निर्मित भोज्य पदार्थों को दूसरे भागों में वितरित करता है।
जाइलम एवं फ्लोएम में क्या अंतर है ?
जाइलम एवं फ्लोएम में मुख्य अंतर निम्नलिखित है-
1. जाइलम की कोशिकाएँ मृत होती है जबकि फ्लोएम की कोशिकाएँ जीवित होती है
2. जाइलम जल एवं घुलित खनिज का स्थानांतरण करता है जबकि फ्लोएम खाद्य पदार्थो का स्थानांतरण करता है
3. जाइलम में जल एवं घुलित खनिज लवणों का बहाव ऊपर की और होता है जबकि फ्लोएम में खाद्य पदार्थो का बहाव ऊपर एवं निचे दोनों तरफ परिवहन होता है।
वाष्पोत्सर्जन- पौधों के वायवीय भागों से जल का रंध्रों द्वारा वाष्प के रूप में निष्कासन की क्रिया वाष्पोत्सर्जन कहलाती है।
पौधों के पित्तयों में सुक्ष्म छिद्र पाई जाती है, जिसे रंध्र कहते हैं। रंध्रों के माध्यम से श्वसन तथा वाष्पोत्सर्जन की क्रिया होती है।
परासरण विधि द्वारा पौधों में वाष्पोत्सर्जन होता है। वाष्पोत्सर्जन के कारण जल का संचलन जाइलम ऊतकों से रंध्रों के तक हमेशा होता रहता है।
पौधों की जड़ से चोटी तक जल का प्रवाह वाष्पोत्सर्जन के कारण होती है।
वाष्पोत्सर्जन के कारण पौधों का तापमान स्थिर रहता है।
पौधे के एक भाग से दूसरे भाग में खाद्य पदार्थो के जलीय घोल के आने जाने को खाद्य पदार्थो का स्थानांतरण कहा जाता है।
जंतुओं में परिवहन
उच्च श्रेणी के जंतुओं में ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, पोषक तत्वों, हार्मोन, उत्सर्जी पदार्थों आदि को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुँचाने के लिए एक विशेष प्रकार का परिवहन तंत्र होता है।
रूधिर, हृदय और रक्त वाहिनियाँ परिसंचरण तंत्र या रक्त परिवहन तंत्र का निर्माण करते हैं। लसीका तंत्र भी परिवहन तंत्र का निर्माण करता है।
रक्त परिवहन तंत्र
रक्त लाल रंग का गाढ़ा क्षारीय तरल पदार्थ है, इसका pH मान 7.4 होता है। रक्त को तरल संयोजी उत्तक कहते है।
1. रक्त को तरल संयोजी ऊतक क्यों कहते हैं ?
उत्तर-रक्त अपने प्रवाह के दौरान सभी प्रकार के ऊतकों का संयोजन करता है, इसलिए रक्त को तरल संयोजी ऊतक कहते हैं।
रक्त की संरचना- रक्त के दो प्रमुख घटक होते है।
1. तरल भाग जो प्लाज्मा कहलाता है।
2. ठोस भाग जिसमे लाल रक्त कोशिकाएँ, श्वेत रक्त कोशिकाएँ तथा रक्त पट्टिकाणु होते हैं।
प्लाज्मा- यह हलके पिले रंग का चिपचिपा द्रव है जो आयतन के हिसाब से पुरे रक्त का करीब 55 प्रतिशत होता है, जिसमें करीब 90% जल, 7% प्रोटीन, 0.9% अकार्बनिक लवण, 0.18% ग्लुकोज, 0.5% वसा तथा शेष अन्य कार्बनिक पदार्थ होते है।
प्लाज्मा में फाइब्रिनोजिन, प्रोथ्रोंबिन तथा हिपैरिन प्रोटीन पाये जाते हैं, जो रक्त को थक्का बनाने में सहायक होते हैं।
रक्त कोशिकाएँ- आयतन हिसाब से रक्त कोशिकाएँ कुल रक्त के करीब 45 प्रतिशत भाग है।
रक्त का रंग लाल क्यों ?
लाल रक्त कोशिकाओं में एक विशेष प्रकार का प्राटीन वर्णक हीमोग्लोबिन पाया जाता है। हीमोग्लोबिन के कारण ही रक्त का रंग लाल दिखता है।
लाल रक्त कोशिकाएँ- यह ऑक्सीजन को शरीर के विभिन्न कोशिकाओं तक पहुँचाने का कार्य करता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड को फेफड़ों तक पहुँचाने का कार्य करता है। लाल रक्त कोशिका में न्यूक्लियस नहीं होता है।
लाल रक्त कोशिका का जीवनकाल 120 दिन होता है। इसमें हिमोग्लोबीन पाया जाता है, जिसके कारण इसका रंग लाल होता है। हिमोग्लोबीन में लोहा पाया जाता है।
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श्वेत रक्त कोशिकाएँ- ये अनियमित आकार के न्यूक्लियस युक्त कोशिकाएँ हैं। इनमें हीमोग्लोबिन जैसे वर्णक नहीं होते हैं, जिसके कारण ये रंगहीन होती है। इनकी संख्या लाल रक्त कोशिकाओं की तुलना में बहुत कम होती है।
रक्त पट्टिकाणु- ये रक्त को थक्का बनाने में मदद करते हैं।
मनुष्य का हृदय- हृदय एक अत्यंत कोमल, मांसल रचना है, जो वक्षगुहा के मध्य में पसलियों के नीचे दोनों फेफड़ों पके बीच स्थित होता है। यह रक्त को पंप करने का कार्य करता है।
यह हृद्-पेशियों का बना होता है। यह पेरिटोनियम की एक दोहरी झिल्ली के अंदर बंद रहता है, जिसे पेरीकार्डियम कहते हैं।
मनुष्य तथा मैमेलिया वर्ग के सभी जंतुओं के हृदय में चार वेश्म होते हैं जो दायाँ और बायाँ अलिंद तथा दायाँ और बायाँ निलय कहलाते हैं।
मछली के हृदय में तीन वेश्म होते हैं। उभयचर जैसे मेढ़क, सरीसृप जैसे साँप, छिपकली के हृदय तीन वेश्म के होते हैं।
हृदय की धड़कन का तालबद्ध संकुंचन एक विशेष प्रकार के तंत्रिका ऊतक के द्वारा होता है जिसे S-A नोड या पेसमेकर कहते हैं। यह बहुत ही मंद विद्युत धारा उत्पन्न करता है।
रक्त वाहिनियाँ
रक्त के परिसंचरण के लिए शरीर में तनी प्रकार की रक्त वाहिनियाँ होती है जो धमनियाँ, रक्त केशिकाएँ तथा शिराएँ कहलाती है।
धमनी और शिरा में अंतर-
धमनी | शिरा |
1. धमनी में शुद्ध रक्त या ऑक्सीजनित रक्त का प्रवाह हृदय से शरीर के विभिन्न विभिन्न अंगों में होता है। | 1. शिरा में अशुद्ध रक्त या विऑक्सीजनित रक्त का प्रवाह शरीर के विभिन्न विभिन्न अंगों से हृदय की ओर होता है।
|
2. धमनी की दिवारें मोटी, लचीली औ कपाटहीन होती है। | 2. शिरा की दिवारें पतली और कपाटयुक्त होती है।
|
3. यह शरीर में अधिक गहराई में पाया जाता है। इसमें रक्त का दाब और चाल दोनों अधिक होता है। | 3. यह शरीर में कम गहराई में पाया जाता है। इसमें रक्त का दाब और चाल दोनों कम होता है। |
4. सिर्फ फुफ्फुस धमनी में अशुद्ध रक्त का प्रवाह होता है, जो अशुद्ध रक्त को हृदय से फेफड़ा में ले जाने का कार्य करता है। | 4. सिर्फ फुफ्फुस शिरा में शुद्ध रक्त का प्रवाह होता है, जो शुद्ध रक्त को फेफड़ा से हृदय की ओर ले जाने का कार्य करता है। |
धमनी- ये शुद्ध या ऑक्सीजन जनित रक्त को शरीर के विभिन्न हिस्सों में ले जाती है। इसकी दिवारें मोटी, लचीली तथा कपाटहीन होती है।
केशिकाएँ- ये बहुत ही महीन रक्त नलिकाएँ होती हैं। इसकी दीवार जल, पचे हुए भोज्य पदार्थ एवं उत्सर्जी पदार्थ, ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड के लिए पारगम्य होती है।
धमनी विभिन्न केशिकाएँ में बँट जाती है। विभिन्न केशिकाएँ मिलकर शिरिकाएँ बनाती हैं और विभिन्न शिरिकाएँ आपस में जुड़कर शिरा बनाती है।
शिराएँ- यह अशुद्ध या ऑक्सीजन रहित रक्त को विभिन्न अंगों से हृदय की ओर ले जाती है। शिराओं में हृदय की खुलनेवाले कपाट लगे होते हैं जो रक्त को केवल हृदय की ओर जाने देते हैं।
लसिका- लसिका हल्के पीले रंग का तरल होता है। इसमें श्वेत रक्त कोशिकाएँ पाई जाती है, लेकिन लाल रक्त कोशिकाएँ और प्लेटलेट्स नहीं पाए जाते हैं।
शरीर में बहुत सारी लसिका ग्रंथि पाई जाती है। यह शरीर को संक्रमण से बचाती है।
रक्तचाप- महाधमनी एवं उनकी मुख्य शाखाओं में रक्त का दबाव रक्तचाप कहलाता है।
एक स्वस्थ व्यक्ति का सामान्य स्थिति में सिस्टोलिक प्रेशर/डायस्टोलिक प्रेशरत्र 120/80 होता है। यही रक्तचाप कहलाता है।
रक्तचाप की माप एक विशेष उपकरण द्वारा की जाती है। यह उपकरण स्फिगमोमैनोमीटर कहलाता है।
सामान्य से अधिक उच्च रक्तचाप हाइपरटेंशन कहलाता है।
हाइपरटेंशन किसी रोग, मानसिक चिंता, उत्सुकता आदि से सम्बंधित हो सकता है। इसके कारण कभी-कभी हृद्याघात भी हो जाता है।
सामान्य से नीचे निम्न रक्तचाप हाइपोटेंशन कहलाता है।
हृदय की धड़कनों को मापने के लिए स्टेथोस्कोप का प्रयोग किया जाता है।
- एक मिनट में हृदय 72 बार धड़कता है।
- खुला परिसंचरण तंत्र तिलचट्टा में पाया जाता है।
- मानव हृदय में कोष्ठों की संख्या 4 होती है।
- मानव हृदय का औसत प्रकुंचन दाब लगभग 120 उउ भ्ह होता है।
- हृदय से रक्त को सम्पूर्ण शरीर में निलय द्वारा पंप किया जाता है।
- हीमोग्लोबीन की कमी से एनीमीया नामक रोग होता है।
- सामान्य अनुशिथिलन रक्त दाब 80 उउ होता है। निलयों के शिथिलन या प्रसारण से रक्त पर उत्पन्न दाब अनुशिथिलन दाब कहते हैं।
- मनुष्य में श्वेत रक्त कोशिकाओं की जीवन अवधि 12 से 20 दिन होती है। लाल रक्त कोशिकाओं की जीवन अवधि 120 दिन और प्लेट्लेट्स की जीवन अवधि 3 से 5 दिन होती है।
- मक्खी में हीमोग्लोबीन नहीं होता है।
- रुधिर तरल संयोजी ऊतक है।
- प्लेटलेट्स रक्तस्त्राव को रोकने में मदद करता है।
- पादप में जाइलम जल के वहन के लिए उत्तरदायी है।
- सबसे तेज हृदय धड़कन चूहा का होता है।
- फ्लोएम ऊतकों द्वारा कार्बोहाइड्रेट का परिवहन फ्रकटोज के रूप में होता है।
- रक्त तरल संयोजी ऊतक है।
- चालनी नलिकाएँ फ्लोएम में पायी जाती है।
- मानव हृदय पेरिकार्डियम नामक झिल्ली से घिरा होता है।
- ऑक्सीजन का वाहक त्ठब् होता है।
- पौधों में वाष्पोत्सर्जन पित्तयों के माध्यम से होता है।
उत्सर्जन- जीवों के शरीर से उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न अपशिष्ट पदार्थों का शरीर से बाहर निकलना उत्सर्जन कहलाता है।
जल संतुलन- शरीर में जल की मात्रा का संतुलन जल संतुलन कहलाता है।
उत्सर्जी पदार्थ- जंतुओं के शरीर में बननेवाला ऐसे पदार्थ जो हानिकारक होते हैं, उसे उत्सर्जी पदार्थ कहते हैं। जैसे अमोनिया, यूरिया या यूरिक अम्ल आदि।
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जंतुओं में उत्सर्जन
उत्सर्जी अंग- वैसा अंग जो शरीर से अपशिष्ट पदार्थ (खराब पदार्थ) बाहर निकालते हैं, उसे उत्सर्जी अंग कहते हैं। जैसे- फेफड़ा बलगम का उत्सर्जन करता था तथा वृक्क यूरिया का उत्सर्जन करता है।
अमीबा में उत्सर्जन विसरण विधि द्वारा होता है।
मनुष्य में उत्सर्जन- मनुष्य एवं समस्त वर्टिब्रेटा उपसंघ के जंतुओं में वृक्क सबसे महत्वपूर्ण उत्सर्जी अंग है।
वृक्क से संबंद्ध अन्य रचनाएँ जो उत्सर्जन में भाग लेती हैं, वे हैं मूत्रवाहिनी, मूत्राशय तथा मूत्रमार्ग।
मनुष्य में एक जोड़ा वृक्क होता है, जो सेम के बीज के आकार का होता है।
प्रत्येक वृक्क का भार 140 हउ होता है।
प्रत्येक वृक्क से लगभग 1,30,000 सूक्ष्म नलिकाएँ (Micro tubules) होती है जिन्हें वृक्कक या नेफ्रॉन (Nephron) कहते हैं। नेफ्रॉन वृक्क की कार्यात्मक इकाई (Functional Unit of Kidney) होती है। नेफ्रॉन को उत्सर्जन इकाई भी कहा जाता है।
वृक्क रक्त के शुद्धिकरण का कार्य करता है।
वृक्क के बाहरी भाग को प्रातंस्थ भाग या कार्टेक्स जबकि आंतरिक भाग को अंतस्थ भाग या मेडुला कहते हैं।
नेफ्रॉन की संचरना
वृक्क की इकाई को नेफ्रॉन कहते हैं। प्रत्येक वृक्क में 10 लाख नेफ्रॉन होते हैं। प्रत्येक नेफ्रॉन के शुरू वाले हिस्से पर प्याले जैसी रचना होती है, जिसे बोमैन-संपुट कहते हैं।
वृक्क के कार्य- वृक्क के निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य हैं-
(a) वृक्क स्तनधारियों एवं अन्य कशेरुकी जन्तुओं में उपापचय क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न विभिन्न अपशिष्ट पदार्थों को मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकालता है।
(b) यह रक्त में हाइड्रोजन आयन सांद्रता (pH) का नियंत्रण करता है।
(c) यह रक्त के परासरणी दाब तथा उसकी मात्रा का नियंत्रण करता है।
(d) यह रुधिर तथा ऊतक द्रव्य में जल एवं लवणों की मात्रा को निश्चित कर रुधिर दाब बनाए रखता है।
(e) रुधिर के विभिन्न पदार्थों का वर्णात्मक उत्सर्जन कर वृक्क शरीर की रासायनिक अखण्डता बनाने में सहायक होता है।
(f) शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने की अवस्था में विशेष एन्जाइम के स्रवण से वृक्क एरिथ्रोपोइटिन (Erythropoietin) नामक हार्मोन द्वारा लाल रुधिराणुओं के तेजी से बनने में सहायक होता है।
(g) यह कुछ पोषक तत्त्वों के अधिशेष भाग जैसे शर्करा, ऐमीनो अम्ल आदि का निष्कासन करता है।
(h) यह बाहरी पदार्थों जैसे दवाइयाँ, विष इत्यादि जिनका शरीर में कोई प्रयोजन नहीं होता है, उनका निष्कासन करता है।
(i) शरीर में परासरण नियंत्रण (Osmoregulation) द्वारा वृक्क जल की निश्चित मात्रा को बनाए रखता है।
वृक्क का कार्य- वृक्क द्वारा मूत्र-निर्माण या उत्सर्जन की क्रिया निम्नलिखित तीन चरणों में पूर्ण होती है।
1. ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेशन
2. ट्यूबुलर पुनरवशोषण
3. ट्यूबुलर स्त्रवण
1. ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेशन- ग्लोमेरूलर एक छन्ना की तरह कार्य करता है। रक्त के साथ यूरिया, यूरिक अम्ल, जल, ग्लूकोज, लवण, प्रोटीन इत्यादि ग्लोमेरूलर में छनते हैं।
2. ट्यूबुलर पुनरवशोषण- यह उन पदार्थों को शोषित कर लेती हैं जिनकी आवश्यकता होती है तथा जिन पदार्थों की आवश्यकता नहीं होती है उन्हें छोड़ देती है।
3. ट्यूबुलर स्त्रवण- पुनरावशोषण के पश्चात् कभी-कभी नलिका की कोशिकाओं से कुछ उत्सर्जी पदार्थ स्रावित होते हैं जो फिल्ट्रेट में मिल जाते हैं। इसे ट्यूबुलर स्रवण कहते हैं।
इस फिल्ट्रेट को ब्लाडर-मूत्र कहते हैं। यह मूत्र-नलिका से होकर गुजरता है तथा मूत्राशय में जमा होता है एवं समय-समय पर मूत्रमार्ग के छिद्र द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
मूत्र की बनावट- मूत्र का निर्माण वृक्क करता है। इसमें 96 जल, 2 यूरिया और 2 अन्य पदार्थ होते हैं। मूत्र का पिला रंग यूरोक्रोम के कारण होता है।
हिमोडायलिसिस- डायलिसिस मशीन से रक्त के शुद्धिकरण की प्रक्रिया हिमोडायलिसिस कहलाती है।
पादप में उत्सर्जन
पौधों में उत्सर्जन के लिए विशिष्ट अंग नहीं होते हैं। पौधों में कार्बन डाइऑक्साइड गैस और ऑक्सीजन का निष्कासन विसरण विधि द्वारा होता है।
- पौधे में उत्सर्जन पित्तयों के गिरने और छाल के विलगाव से होता है।
- पौधों में पाए जानेवाले मुख्य उत्सर्जी पदार्थों में टैनिन, रेजिन एवं गोंद हैं।
- प्रोटोजोआ अवशिष्ट पदार्थों का निष्कासन विसरण द्वारा करता है।
- कृत्रिम वृक्क नाइट्रोजन अपशिष्ट को अपोहन द्वारा पृथक करता है।
- मानव में नेफ्रॉन डायलिसिस थैली है।
- नेफ्रॉन वृक्क की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है।
- मानव का प्रमुख उत्सर्जी अंग वृक्क है।
- सजीव जीवधारियों द्वारा अमोनिया, यूरिक अम्ल और यूरिया जैसे नाइट्रोजनी पदार्थ (कचरा) का उत्सर्जन होता है।
- मनुष्य में वृक्क उत्सर्जन से संबंधित है।
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पाठ के अन्दर आए हुए प्रश्न तथा उनके उत्तर
प्रश्न 1. हमारे जैसे बहुकोशिकीय जीवों में ऑक्सीजन की आवश्यकता पूरी करने में विसरण क्यों अपर्याप्त है ?
उत्तर – हमारे जैसे बहुकोशिकीय जीवों में ऑक्सीजन की आवश्यकता पूरी करने में विसरण इस कारण अपर्याप्त हैं क्योंकि बहुकोशिकीय जीवों में सभी कोशिकाएँ वातावरण से सीधे सम्पर्क में नहीं होती हैं। अतः विसरण सभी कोशिकाओं की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता है ।
प्रश्न 2. कोई वस्तु सजीव है, इसका निर्धारण करने के लिए हम किस मापदंड का उपयोग करेंगे ?
उत्तर – सजीवों की समस्त संरचनाएँ अणुओं से मिलकर बनी हैं। सजीवों को अपनी संरचनाओं की मरम्मत जरूरी है। इसलिए इनमें हमेशा अणुओं को गतिशील रखने की क्षमता होनी चाहिए। स्पष्ट है कि जीव के जीवित होने का प्रमाण अणु की गति है ।
प्रश्न 3. किसी जीव द्वारा किन कच्ची सामग्रियों का उपयोग किया जाता है ?
उत्तर – किसी जीव द्वारा ऑक्सीजन, जल तथा भोजन जैसी कच्ची सामग्रियों का उपयोग किया जाता है ।
भोजन — जीव द्वारा ऊर्जा एवं पदार्थों के स्रोत के रूप में उपयोग किया जाता है।
ऑक्सीजन – जीवों को भोजन जैसे पदार्थों के विखण्डन से ऊर्जा प्राप्त होती है। इसके लिए श्वसन करना पड़ता है।
जल—भोजन के पाचन तथा जैविक प्रक्रियाओं के लिए जल पीया जाता है।
प्रश्न 4. जीवन के अनुरक्षण के लिए आप किन प्रक्रमों को आवश्यक मानेंगे ?
उत्तर – जीवन के अनुरक्षण के लिए निम्नलिखित प्रक्रम आवश्यक मानेंगे :
(i) पोषण, (ii) श्वसन, (iii) वहन तथा (iv) उत्सर्जन ।
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( पृष्ठ : 111 )
प्रश्न 1. प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक कच्ची सामग्री पौधा कहाँ से प्राप्त करता है ?
उत्तर – प्रकाशसंश्लेषण के लिए पौधे कच्ची सामग्री वातावरण से प्राप्त करते हैं
(i) क्लोरोफिल पादपों की हरी पत्तियों में वर्तमान रहता है ।
(ii) प्रकाश वे सूर्य से प्राप्त करते हैं ।
(iii) पौधे वातावरण से अपनी पत्तियों के रन्धों द्वारा CO2 ग्रहण करते हैं
(iv) पौधे अपनी जड़ों द्वारा मृदा में से जल का अवशोषण करते हैं और इस प्रकार जल का परिवहन जड़ से पत्तियों तक होता है ।
प्रश्न 2. हमारे आमाशय में अम्ल की भूमिका क्या है ?.
उत्तर—हमारे आमाशय में उसकी भित्ति होती है । उसमें जठर ग्रंथियाँ उपस्थित है जिससे अम्ल निकलता है। यह अम्ल पेप्सिन एंजाइम की क्रियाशीलता के लिए आवश्यक है । यह भोजन में उपस्थित जीवाणुओं को नष्ट भी करता है ।
प्रश्न 3. पाचक एंजाइमों का क्या कार्य है ?
उत्तर—हम जटिल पदार्थों को भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं। पाचक एंजाइम इन जटिल पदार्थों को छोटे-छोटे सरल अणुओं में बदल देते हैं । यह इसलिए आवश्यक होता है कि सरल अणुओं को क्षुद्रांत्र द्वारा आसानी से अवशोषित कर लिया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं पाचक एंजाइमों का हमारी पाचन क्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान है
प्रश्न 4. पचे हुए भोजन को अवशोषित करने के लिए क्षुद्रांत्र को कैसेअभिकल्पित किया गया है ?
उत्तर – पचे हुए भोजन का अवशोषण क्षुद्रांत्र में होता है । इसकी संरचना अँगुलीनुमा में रुधिर वाहिकाओं की बहुतायत होती है जो भोजन को अवशोषित करके शरीर क होती है जिसे दीर्घरोम कहते हैं । ये अवशोषण का सतही क्षेत्रफल बढ़ा देते हैं । दीर्घरोम प्रत्येक कोशिका तक पहुँचाते हैं । यहाँ इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने, नए ऊतकों के निर्माण करने और पुराने ऊतकों की मरम्मत करने में होता है ।
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( पृष्ठ : 116 )
प्रश्न 1. श्वसन के लिए ऑक्सीजन प्राप्त करने की दिशा में एक जलीय जीव की अपेक्षा स्थलीय जीव किस प्रकार लाभप्रद है ?
उत्तर- जो जीव जल में रहते हैं वे जल में विलेय O, का उपयोग करते हैं क्योंकि जल में विलेय ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम होती है, इसलिए जलीय जीवों की श्वास दर स्थलीय जीवों की अपेक्षा द्रुत गति से होती है। स्थलीय जीव श्वसन के लिए वायुमंडल के ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं। विभिन्न जीवों में यह ऑक्सीजन भिन्न-भिन्न अंगों द्वारा अवशोषित किया जाता है। सभी अंगों में एक रचना होती है जो उसके सतही क्षेत्रफल की बढ़ाती है । स्थलीय जीव ऑक्सीजन बाहुल्य वायुमंडल के सम्पर्क में रहता है ।
प्रश्न 2. ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से भिन्न जीवों में ऊर्जा प्राप्त करने के विभिन्न पथ क्या हैं ?
उत्तर—पहले चरण में ग्लूकोज के छः कार्बन वाले अणु का तीन कार्बन वाले अणु पायरुवेट में विखण्डन हो जाता है। यह प्रक्रिया कोशिका द्रव्य में होती है। इसके बाद पायरुवेट एथेनॉल तथा ऑक्सीजन में परिवर्तित हो जाता है । इसके बाद पायरुवेट का विखण्डन विभिन्न जीवों में निम्नलिखित तरीकों से होता है ।
(a) अवायवीय श्वसन – यह क्रिया ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होती है । इसे. अवायवीय श्वसन कहते हैं । यह प्रक्रम किण्वन के समय यीस्ट में होता है ।
(b) वायवीय श्वसन—यह क्रिया ऑक्सीजन के उपस्थिति में होती है। इसे वायवीय श्वसन कहते हैं । इसमें पायरुवेट का विखण्डन होता है । यह प्रक्रम माइटोकॉण्ड्रिया में होता है और इसमें ऊर्जा का उत्पादन अवायवीय की तुलना में अधिक होता है ।
(c) ऑक्सीजन की कमी— कभी-कभी जब हमारी पेशी कोशिकओं में अत्यधिक व्यायाम के कारण ऑक्सीजन का अभाव हो जाता है, पायरुवेट के विखण्डन के लिए दूसरा पथ अपनाया जाता है। यहाँ पायरुवेट एक अन्य तीन कार्बन वाले अणु लैक्टिक अम्ल में परिवर्तन हो जाता है
प्रश्न 3. मनुष्यों में ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन कैसे होता है ?
उत्तर- (i) ऑक्सीजन का परिवहन – हीमोग्लोबिन लाल रक्त कोशिकाओं में पाया जाता है जो फेफड़ों में पहुँची हुई वायु में से ऑक्सीजन लेकर उन उतकों तक ले जाते हैं जहाँ पर ऑक्सीजन की कमी होती है ।
(ii) कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन — कार्बन डाइऑक्साइड जल में अधिक विलेय है और इसलिए इसका परिवहन हमारे रुधिर में विलेय अवस्था में होता है। यह नासाद्वारों से होकर बाहर निकल जाता है ।
प्रश्न 4. गैसों के विनिमय के लिए मानव- फुफ्फुस में अधिकतम क्षेत्रफल को कैसे अभिकल्पित किया गया है ?
उत्तर- फेफड़ों के अन्दर का मार्ग छोटी-छोटी नलिकाओं में विभाजित होता है, जिसे श्वसनी कहा जाता है । यह आगे श्वसनिकाओं में विभाजित हो जाती है। श्वसनिकाओं का अन्तिम सिरा गुब्बारे के समान संरचना में मिलता है, जिन्हें कूपिकाएँ कहते है कूपिकाओं की भित्ति में रुधिर वाहिकाओं का बड़ा जाल होता है । कूपिकाओं की भित्ति बहुत पतली होती है। इनमें बहुत सारे रक्त वाहिकाएँ होती हैं, जिसके द्वारा ऐसा का आदान-प्रदान आसानीपूर्वक होता है ।
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(पृष्ठ : 122 )
प्रश्न 1. मानव में वहन तंत्र के घटक कौन-से हैं ? इन घटकों के क्या कार्य हैं ?
उत्तर—मानव में वहन तंत्र के घटक निम्नलिखित हैं :
(a) हृदय, (b) रुधिर तथा (c) रुधिर वाहिकाएँ ।
(a) हृदय के कार्य — हृदय एक पेशीय अंग है जो हमारी मुट्ठी के आकार का होता है । यह शरीर में रुधिर को प्रवाहित करता है । यह विऑक्सीजनित रुधिर को शरीर के विभिन्न हिस्सों से प्राप्त करता है और दूसरी ओर ऑक्सीजनित रुधिर समस्त शरीर में पम्प करके पहुँचा देता है ।
(b) रुधिर – रुधिर तरल संयोजी अवयव हैं, जिसमें (i) प्लाज्मा, (ii) लाल रक् कणिकाएँ, (iii) श्वेत रक्त कणिकाएँ तथा (iv) प्लेटलेट्स होते हैं ।
(i) प्लाज्मा भोजन, कार्बन डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन युक्त उत्सर्जन पदार्थों क परिवहन करता है ।
(ii) लालरक्त कणिकाएँ श्वसन गैसों तथा हॉर्मोनों का परिवहन करती हैं। (iii) श्वेत रक्त कणिकाएँ संक्रमणों से शरीर की रक्षा करती हैं ।
(iv) प्लेटलेट्स रक्तस्त्राव के स्थान पर रुधिर का थक्का बनाकर मार्ग अवरुद्ध क देते हैं जिससे रुधिर का बहना बन्द हो जाता है ।
(c) रुधिर वाहिकाएँ—रुधिर वाहिकाएँ रुधिर को हृदय से शरीर के विभिन्न अ तक ले जाती हैं। इनकी भित्ति मोटी तथा लचीली होती है।
प्रश्न 2. स्तनधारी तथा पक्षियों में ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर अलग करना क्यों आवश्यक है ?
उत्तर—स्तनधारी तथा पक्षियों में ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को अत करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि पक्षी तथा स्तनधारी जन्तुओं को उच्च ऊर्जा आवश्यकता है। यह लाभदायक इसलिए भी है क्योंकि इन्हें अपने शरीर के तापम को बनाए रखने के लिए निरंतर ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इस कारण इन्हें उर्जा प्राप्त करने के लिए ऑक्सीजन की लगातार आवश्यकता पड़ती है।
प्रश्न 3. उच्च संगठित पादप में वहन तंत्र के घटक क्या हैं ?
उत्तर – उच्च संगठित पादप में वहन तंत्र के दो घटक (i) जाइलम तथा (ii) फ्लोएम ।
(i) जाइलम – जाइलम ऊतक में जड़ों, तनों तथा पत्तियों की वाहिनिकाएँ तथा वाहिकाएँ आपस में जुड़कर जल संवहन वाहिकाओं का एक सतत जाल बनाती हैं । ये पादप के सभी भागों से जुड़ी होती हैं । जाइलम जल तथा लवणों को मृदा से पत्तियों तक परिवहित करता है ।
(ii) फ्लोएम — फ्लोएम में चालनी तथा सहचर केशिकाएँ होती हैं । ये भोज्य पदार्थों को पत्तियों से पौधों के विभिन्न भागों में परिवहित करने का काम करती हैं।
प्रश्न 4. पादप में जल और खनिज लवण का वहन कैसे होता है ?
उत्तर—पादप में जल तथा खनिज जाइलम कोशिकाओं द्वारा मृदा से पत्तियों तक स्थानान्तरित होते हैं। जड़ों की कोशिकाएँ मृदा से लवण प्राप्त करती हैं । ये मृदा तथा जड़ के लवणों की सान्द्रता में अन्तर उत्पन्न कर देती हैं । इस कारण जाइलम में जल का लगातार गति होता रहता है । वाष्पोत्सर्जन के कारण जल की लगातार हानि होती रहती है और चूषण होता रहता है, जिससे जल की निरन्तर गति बनी रहती है । इस प्रकार जल तथा खनिजों का वहन होता है ।
प्रश्न 5. पादप में भोजन का स्थानांतरण कैसे होता है ?
उत्तर—प्रकाशसंश्लेषण के विलेय उत्पादों का फ्लोएम के द्वारा वहन होना स्थानांतरण कहलाता है । यह कार्य चालनी कोशिकाओं तथा सहचर कोशिकाओं द्वारा सम्पन्न होता है । भोजन कणों का परिवहन ऊपर तथा नीचे दोनों दिशाओं में होता है । यह क्रिया एक सतत क्रिया है जो ऊर्जा के उपयोग से पूरा होता है । सुक्रोज जैसे पदार्थ फ्लोएम ऊतक में ए. टी. पी. से प्राप्त ऊर्जा से स्थानांतरित होते हैं । यह ऊतक परासरण दाब बढ़ा देता है, जिससे जल इसमें प्रवेश कर जाता है । यह दाब पदार्थों को फ्लोएम से उस ऊतक तक ले जाता है जहाँ दाब कम होता है । फ्लोएम पादप की आवश्यकता के अनुसार पदार्थों का स्थानांतरण करता है ।
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(पृष्ठ : 124)
प्रश्न 1. वृक्काणु (नेफ्रॉन) की रचना तथा क्रियाविधि का वर्णन कीजिए ।
उत्तर – वृक्काणु (नेफ्रॉन) की रचना : वृक्क में बहुत पतली भित्ति वाली रुधिर कोशिकाओं का गुच्छा होता है । इसमें प्रत्येक कोशिका गुच्छ, एक नलिका के आकार के सिरे के अन्दर होता है । यह नलिका छने हुए मूत्र को एकत्र करती है । प्रत्येक वृक्क में ऐसे अनेक निस्यंदन एकक होते हैं जिन्हें नेफ्रॉन कहते हैं । प्रत्येक वृक्क में बनने वाला मूत्र एक लम्बी नलिका, मूत्र वाहिनी में प्रवेश करती है जो वृक्क को मूत्राशय से जोड़ती है ।
वृक्काणु के कार्य — बोमेन संपुट के अन्दर कोशिका गुच्छे की कोशिकाएँ पाई जाती हैं जिसके द्वारा रुधिर छाना जाता है । निस्यन्द वृक्काणु के नलिका से होकर गुजरती है । इसमें ग्लूकोज, अमीनो अम्ल, यूरिक अम्ल, लवण तथा जल की अधिक मात्रा रह जाती हैं। फिर जैसे-जैसे ग्लूकोज, अमीनो, अम्ल, लवण तथा जल को रुधिर कोशिकाओं द्वारा अवशोषित करता है । वैसे-वैसे शरीर में उपलब्ध अतिरिक्त जल की मात्रा तथा विलय वर्ज्य (बेकार) पदार्थ उत्सर्जित करना उसी पर निर्भर करता है। फिर अवशोषण के बाद जो निस्यन्द बचता है उसे पेशाब कहते हैं । पेशाब में घुले हुए नाइट्रोजन युक्त उत्सर्जक यूरिया, यूरिक अम्ल, लवण एवं पानी होते हैं । इस प्रकार यह मूत्रवाहिनी द्वारा शरीर से बाहर निकलते हैं ।
प्रश्न 2. उत्सर्जी उत्पाद से छुटकारा पाने के लिए पादप किन विधियों का उपयोग करते हैं ।
उत्तर—उत्सर्जी उत्पाद से छुटकारा पाने के लिए पादप निम्नलिखित तरीकों का उपयोग करते हैं :
(i) वे अतिरिक्त जल से वाष्पोत्सर्जन द्वारा छुटकारा पा सकते हैं ।
(ii) पादपों में बहुत से ऊतक मृत कोशिकाओं के बने होते हैं। वे पत्तियों का क्षय करके छुटकारा पाते हैं ।
(iii) कुछ उत्सर्जक उत्पाद गोंद के रूप में निष्क्रिय जाइलम में संचित रहते हैं
(iv) उत्सर्जी पदार्थ टेनिन, रेजिन, गोंद छाल में भण्डारित रहते हैं जो छाल के हटने से खत्म हो जाते हैं ।
प्रश्न 3. मूत्र बनाने की मात्रा का नियमन किस प्रकार होता है ?
उत्तर — मूत्र की मात्रा, शरीर द्वारा पानी ग्रहण करने के ऊपर निर्भर करता है । नेफ्रॉन नलिका द्वारा पानी की मात्रा का अवशोषण निम्न बातों पर निर्भर करता है :
(a) शरीर में जल की मात्रा कितनी है । कितना जल उत्सर्जन करना है ताकि शरीर के ऊतकों में जल की कमी न हो ।
(b) घुलनशील उत्सर्जक जैसे यूरिया तथा यूरिक अम्ल एवं लवण इत्यादि का शरीर से कितना उत्सर्जन करना है । जब शरीर में अधिक उत्सर्जक होता है तो जल की अर्धिक मात्रा आवश्यक होती है । इस स्थिति में मूत्र ज्यादा बनता है ।
अभ्यास : प्रश्न तथा उनके उत्तर
प्रश्न 1. मनुष्य में वृक्क एक तंत्र का भाग है जो संबंधित है :
(a) पोषण (b) श्वसन (c) उत्सर्जन (d) परिवहन
उत्तर – (c) उत्सर्जन ।
प्रश्न 2. पादप में जाइलम उत्तरदायी है :
(a) जल का वहन (b) भोजन का वहन
(c) अमीनो अम्ल का वहन (d) ऑक्सीजन का वहन
उत्तर- (a) जल का वहन ।
प्रश्न 3. स्वपोषी पोषण के लिए आवश्यक है :
(a) कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल (b) क्लोरोफिल
(c) सूर्य का प्रकाश (d) उपर्युक्त सभी
उत्तर – (d) उपर्युक्त सभी ।
प्रश्न 4. पायरुवेट के विखंडन से यह कार्बन डाइऑक्साइड, जल तथा ऊर्जा देता है और यह क्रिया होती है :
(a) कोशिकाद्रव्य (b) माइटोकॉण्ड्रिया (c) हरित लवक (d) केंद्रक
उत्तर-(b) माइट्रोकॉण्ड्रिया ।
प्रश्न 5. हमारे शरीर में वसा का पाचन कैसे होता है ? यह प्रकम कहाँ होता है ?
उत्तर – वसा का पाचन क्षुद्रांत्र में होता है। क्षुद्रांत्र आहारनाल का सबसे लम्बा भाग है। आमाशय से भोजन क्षुद्रांत्र में प्रवेश करता है । यहाँ यकृत तथा अग्न्याशय से ग्रावण प्राप्त करता है । आमाशय से आनेवाला भोजन अम्लीय होता है जो अग्न्याशय एंजाइमों की क्रिया के लिए उसे क्षारीय बनाता है। इस प्रकार वसा का इमल्सीकरण होता है और टूटकर इस प्रकार बड़ा क्षेत्र प्रदान करते हैं, जिस पर एंजाइम क्रिया कर सके । लाइपेज नामक एंजाइम में अग्न्याशय रस होता है । इमल्सीकरण हुए वसा का विखण्डन होता है । क्षुद्रान्त्र की भित्ति पर स्थापित ग्रंथियाँ क्षुद्रांत्र रस स्रावित करती हैं, जिसमें लाइपेज एंजाइम होते हैं जो वसा को वसा अम्ल तथा ग्लिसरॉल में बदल देता है । यह प्रक्रम क्षुद्रांत्र में होता है ।
प्रश्न 6. भोजन के पाचन में लार की क्या भूमिका है ?
उत्तर – लाला ग्रंथि से निकलनेवाले रस को लार कहते हैं । यह भोजन को काफी मुलायम कर देता है । जब हम दाँतों से चबाकर भोजन को छोटे-छोटे टुकड़ों में बदल देते हैं तब उसमें लार एंजाइम इसमें मिल जाता है। इससे भोजन को निगलने में आसानी होती है। इसे लार एमिलेस भी कहते हैं । यह भोजन को पाचित भी करता है ।
प्रश्न 7. स्वपोषी पोषण के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ कौन-सी हैं और उसके उपोत्पाद क्या हैं ?
उत्तर – स्वपोषी पोषण के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ निम्नलिखित है:
(i) क्लोरोफिल द्वारा प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित करना ।
(ii) प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में रूपान्तरित करना तथा जल अणुओं का H2 तथा O2 में अपघटन करना ।
(iii) कार्बन डाइऑक्साइड का कार्बोहाइड्रेट में अपचयन होता है ।
(क) शर्करा, (ख) जल तथा (ग) ऑक्सीजन इसके उपोत्पाद हैं ।
प्रश्न 8. गैसों के अधिकतम विनिमय के लिए कूपिकाएँ किस प्रकार अभिकल्पित हैं ?
उत्तर— नलिकाओं में गुब्बारे जैसी रचना में होती है, जिसमें 02 गैस अंतर्वृत हो जाती है । इसमें एक ऐसी सतह होती है, जिससे गैसों का विनिमय होता है । कूपिकाओं की भित्ति मोटी होती है, जिसमें रुधिर वाहिकाओं का बड़ा-सा जाल होता है । रुधिर शेष शरीर से CO2 कूपिकाओं में छोड़ने के लिए लाता है। कूपिकाएँ रुधिर वाहिका का रुधिर वायु से O2 लेकर शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाता है ।
प्रश्न 9. हमारे शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी के क्या परिणाम हो सकते हैं ?
उत्तर – हमारे शरीर में यदि हीमोग्लोबिन की मात्रा कम होती है तो ऑक्सीजन की वहन क्षमता घट जाती है। इसलिए ऑक्सीजन की कमी से होनेवाले रोग सताने लगते हैं। खासकर हीमोग्लोबिन की कमी के कारण साँस फूलने लगती है ।
Jaiv Prakram Class 10th Solutions
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