इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड कक्षा 10 के सामाजिक विज्ञान भूगोल के 1 (क) प्राकृतिक संसाधन (Prakritik Sansadhan class 10th solutions) को पढ़ेंगे।
(क) प्राकृतिक संसाधन
प्रकृति-प्रदत्त वस्तुओं को प्राकृतिक संसाधन कहते हैं। जैसे- जल, वायु, वन आदि।
हम भूमि पर निवास करते हैं। हमारा आर्थिक क्रिया-कलाप इसी पर संपादित होता है। इसलिए भूमि एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। कृषि, वानिकी, पशु-चारण, मत्स्यन, खनन, वन्य-जीव, परिवहन-संचार, जैसे आर्थिक क्रियाएँ भूमि पर ही सम्पन्न होते हैं।
भूमि संसाधन के कई भौतिक स्वरूप हैं, जैसे- पर्वत, पठार, मैदान, निम्नभूमि और घाटियाँ इत्यादि। भारत भूमि संसाधन में संपन्न है। यहाँ कुल भूमि का 43 प्रतिशत भू-भाग पर मैदान है जो कृषि और उद्योगों के लिए उपयोगी है। 30 प्रतिशत भाग पर्वतीय क्षेत्र और 27 प्रतिशत भाग पठारी क्षेत्र है।
Prakritik Sansadhan class 10th solutions
मृदा निर्माण :
मृदा- पृथ्वी की सबसे ऊपरी पतली परत को मृदा कहते हैं। मृदा पारितंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है। यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक नवीकरणीय संसाधन है।
मृदा का निर्माण एक लंबी अवधि में पूर्ण होती है जो एक जटिल प्रक्रिया है। कुछ सेंटीमीटर गहरी मृदा के निर्माण में लाखों वर्ष लग जाते हैं। चट्टानों के टूटने-फूटने तथा भौतिक, रासायनिक और जैविक परिवर्तनों से मृदा निर्माण होता है। भूगोलविद् इसे अत्यंत धीमी प्रक्रिया मानते हैं।
तापमान परिवर्तन, प्रवाहित जल की क्रिया, पवन, हिमनद और अपघटन की अन्य क्रियाएँ ऐसे तत्त्व हैं, जो मृदा निर्माण में सहयोग करती हैं।
मृदा के प्रकार एवं वितरण :
मृदा निर्माण की प्रक्रिया के निर्धारक तत्त्व, उनके रंग-गठन, गहराई, आयु व रासायनिक और भौतिक गुणों के आधार पर भारत की मृदा के छः प्रकार होते हैं।
1. जलोढ़ मृदा
यह मृदा भारत में विस्तृत रूप में फैली हुई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मृदा है। उत्तर भारत का मैदान पूर्ण रूप से जलोढ़ निर्मित है, जो हिमालय की तीन महत्त्वपूर्ण नदी प्रणालियों सिंधु, गंगा और बह्मपुत्र द्वारा लाए गए जलोढ़ के निक्षेप से बना है।
कुल मिलाकर भारत के लगभग 6. 4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर जलोढ़ मृदा फैली हुई है।
इसका रंग धुँधला से लेकर लालिमा लिये भूरे रंग का होता है।
आयु के आधार पर जलोढ़ मृदा के दो प्रकार हैं- पुराना एवं नवीन जलोढ़।
पुराने जलोढ़ में कंकड़ एवं बजरी की मात्रा अधिक होती है। इसे बांगर कहते हैं। यह ज्यादा उपजाऊ नहीं होते हैं।
बांगर की तुलना में नवीन जलोढ़ में महीन कण पाये जाते हैं, जिसे खादर कहा जाता है। खादर में बालू एवं मृत्तिका का मिश्रण होता है। ये काफी उपजाऊ होते हैं।
उत्तर बिहार में बालू प्रधान जलोढ़ को ‘दियारा भूमि’ कहते हैं। यह मक्का की कृषि के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
जलोढ़ मृदा में पोटाश, फास्फोरस और चूना जैसे तत्त्वों की प्रधानता होती है, जबकि नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थों की कमी रहती है। यह मिट्टी गन्ना, चावल, गेहूँ, मक्का, दलहन जैसी फसलों के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
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2. काली मृदाः
इस मिट्टी का रंग काला होता है। यह कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है। जिस कारण इसे ‘काली कपास मृदा’ के नाम से भी जाना जाता है।
इस मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता अत्यधिक होती है। यह मृदा कैल्शियम कोर्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश और चूना जैसे पौष्टिक तत्त्वों से परिपूर्ण होती है। इसमें फास्फोरस की कमी होती है।
3. लाल एवं पीली मृदा :
इस मृदा में लोहा के अंश होने के कारण लाल होता है। जलयोजन के पश्चात यह मृदा पीले रंग की हो जाती है। जैव पदार्थों की कमी के कारण यह मृदा जलोढ़ एवं काली मृदा की अपेक्षा कम उपजाऊ होती है। इस मृदा में सिंचाई की व्यवस्था कर चावल, ज्वार-बाजरा, मक्का, मूंगफली, तम्बाकू और फलों का उत्पादन किया जा सकता है।
4. लैटेराइट मृदा :
इस प्रकार की मिट्टी का विकास उच्च तापमान एवं अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में हुआ है। इस मृदा में ह्यूमस की मात्रा नगण्य होती है। यह मिट्टी कठोर होती है। अल्युमीनियम और लोहे के ऑक्साइड के कारण इसका रंग लाला होता है।
कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में मृदा संरक्षण तकनीक के सहारे चाय एवं कहवा का उत्पादन किया जाता है। तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और केरल में इस मृदा में काजू की खेती उपयुक्त मानी जाती है।
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5. मरूस्थलीय मृदा :
इस मृदा का रंग लाल या हल्का भूरा होता है। इस प्रकार की मृदा में वनस्पति और उर्वरक का अभाव पाया जाता है। किन्तु, सिंचाई की व्यवस्था कर कपास, चावल, गेहूँ का भी उत्पादन किया जा सकता है।
6. पर्वतीय मृदा :
पर्वतीय मृदा प्रायः पर्वतीय और पहाड़ी क्षेत्रों में देखने को मिलती है। यह मृदा अम्लीय और ह्यूमस रहित होते हैं। इस मृदा पर ढ़ालानों पर फलों के बगान एवं नदी-घाटी में चावल एवं आलू का लगभग सभी क्षेत्रों में उत्पादन किया जाता है।
भारत में भू-उपयोग के स्वरूप
भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र 32. 8 लाख वर्ग किमी के मात्र 93 प्रतिशत भाग का ही भूमि-उपयोग का आँकड़ा उपलब्ध है।
भारत पशुधन के मामले में विश्व के अग्रणी देशों में शामिल किया जाता है। किन्तु, यहाँ स्थाई चारागाह के लिए बहुत कम भूमि उपलब्ध है जो पशुधन के लिए पर्याप्त नहीं है जिसके कारण पशुपालन पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ता है।
पंजाब और हरियाणा में कुल भूमि के 80 प्रतिशत भाग पर खेती की जाती है जबकि अरूणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर एवं अंडमान निकोबार द्वीप समूह में 10 प्रतिशत से कम क्षेत्र में खेती की जाती है।
किसी भी देश में पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने के लिए उसके कुल भू-भाग का 33 प्रतिशत वन होना चाहिए। लेकिन भारत में आज भी मात्र 20 प्रतिशत भू-भाग पर ही वनों का विस्तार है जो पर्यावरण के लिए हानिकारक है।
भू-क्षरण और भू-संरक्षण
मृदा को अपने स्थान से विविध क्रियाओं द्वारा स्थानांतरित होना भू-क्षरण कहलाता है। गतिशीत-जल, पवन, हिमानी और सामुद्रिक लहरों द्वारा भू-क्षरण होता है। तीव्र वर्षा से भी मृदा का कटाव होता है।
भमि निम्नीकरण- वह प्रक्रिया जिसमें भूमि खेती के अयोग्य बनती है, उसे भूमि निम्नीकरण कहते हैं। वनोंन्मूलन, अति-पशुचारण, खनन, रसायनों का अत्यधिक उपयोग के कारण भूमि निम्नीकरण होता है।
उड़ीसा वनोंन्मूलन के कारण भूमि-निम्नीकरण का शिकार हुआ है। गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अत्यधिक पशुचारण के कारण भूमि निम्नीकरण हुआ है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिक सिंचाई के कारण भूमि निम्नीकरण हुआ है। अधिक सिंचाई से जलाक्रांतता की समस्या पैदा होती है जिससे मृदा में लवणीय और क्षारीय गुण बढ़ जाती है जो भूमि के निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी होते हैं।
पहाड़ी क्षेत्रों में समोच्च जुताई द्वारा मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में पट्टिका कृषि से मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। रसायन का उचित उपयोग कर मृदा संरक्षण को रोका जा सकता है। रसायनों के लगातार उपयोग से मृदा के पोषक तत्त्वों में कमी होने लगती है। ये पोषक तत्त्व जल, वायु, केंचुआ और अन्य शूक्ष्म जीव हो सकते हैं।
एंड्रीन नामक रसायन मेंढ़क के प्रजनन पर रोक लगा देता है जिससे कीटों की संख्या बढ़ जाती है जिसके कारण फसलों की हानि होती है। रासायनिक उर्वरक की जगह जैविक खाद का उपयोग कर मृदा क्षरण को रोका जा सकता है।
मृदा क्षरण को रोकने के लिए वृक्षा रोपण महत्वपूर्ण है। वृक्ष के पत्तियों से प्राप्त ह्युमस मृदा की गुणवत्ता को बढ़ाते हैं।
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लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. जलोढ़ मृदा के विस्तार वाले राज्यों के नाम बतावें। इस मृदा में कौन-कौन सी फसलें लगायी जा सकती है?
उत्तर-जलोढ़ मृदा के विस्तार वाले राज्य है- उत्तर प्रदेश, बिहार पंजाब, गुजरात, राजस्थान, प० बंगाल, असम। इस मृदा में गन्ना, चावल, गेहूँ, मक्का, दलहन जैसे फसलें लगाई जा सकती है।
प्रश्न 2. समोच्च कृषि से आप क्या समझते है?
उत्तर- पर्वतीय ढ़ालो में कृषि करने के लिए वृताकार रूप में खेती की जुताई कर कृषि की जाती है। खेतों की आकृति समोच्च रेखाओं की तरह दिखाई देती है। इस प्रकार के कृषि को समोच्च कृषि कहते हैं। इस कृषि से खेतों के पोषणीय तत्व जल के साथ नहीं बहती है।
प्रश्न 3. पवन अपरदन वाले क्षेत्र में कृषि की कौन-सी पद्धति उपयोगी मानी जाती है?
उत्तर- पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में पट्टिका कृषि का उपयोग अच्छी मानी जाती है। इस कृषि में फसलों के बीच घास की पट्टियाँ विकसित की जाती है।
प्रश्न 4. भारत के किन भागो में नदी डेल्टा का विकास हुआ है? यहाँ की मृदा की क्या विशेषता है?
उत्तर- भारत के पूर्व तटीय मैदान स्थित महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी, नदियों द्वारा निर्मित डेल्टा का भी निर्माण जलोढ़ से ही जुड़ा है
जलोढ़ मिट्टी का गठन बालु, सिल्ट एवं मृतिका के विभिन्न अनुपात से होता है। इसका रंग धुँधला से लेकर ललिमा लिये भूरे रंग का होता है।
प्रश्न 5. फसल चक्रण मृदा संरक्षण में किस पर सहायक है?
उत्तर- फसल चक्रण से मृदा संरक्षण होता है। खेतों में लगातार गेहूँ, चावल, मक्का, आलु आदि के लगातार उगाने से मृदा में उर्वरा शक्ति कमजोर हो जाती है। इसलिए दो फसलों के बीच तिलहन-दलहन फसलों को लगाने की सलाह दी जाती है। इससे नाइट्रोजन का स्थिरीकरण होता है। मृदा की खोई हुई उर्वरा शक्ति वापस लौट जाती है।
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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. जलाक्रांतता कैसे उपस्थित होता है? मृदा अपरदन में इसकी क्या भूमिका है?
उत्तर- आजादी के बाद भारत में उद्योग धंधो के विकास पर अधिक जोर दिया। विकास के यह प्रक्रिया अंधाधुंध से जुड़ गयी विकास के क्रम में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के इलाके में रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के साथ ही अधिक सिंचन का प्रयोग कृषि में हुआ। इस इलाके में भूमि पर जलक्रांतता की उत्पन्न हुई।
मृदा में लवणीय और क्षारीय गुण बढ़ जाता है, भूमि में लवण की मात्रा बढ़ने लगती है, मिट्टी की परतों में भी क्षय होने लगता है। मिट्टी के अवयव घुलते जाते है। कुछ जल में बह जाते है तो कुछ हवा में उड़ जाते है। जिसे मृदा अपरदन कहते हैं। इस प्रकार मृदा अपरदन जलाक्रांतता के कारण उत्पन्न होती है।
प्रश्न 2. मृदा संरक्षण पर एक निबंध लिखिएं।
उत्तर- पृथ्वी की सबसे उपरी पतली परत को मृदा पारितंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राकृतिक नवीकरणीय संसाधन है।
मृदा का निर्माण एक लंबी अवधि में पूर्ण होती है जो एक जटिल प्रक्रिया है। कुछ सेंटीमीटर गहरी मृदा के निर्माण में लाखों वर्ष लग जाते है। चट्टानों के टुटने-फूटने तथा भौतिक, रासायनिक और जैविक परिवर्तनों से मृदाकानिर्माण होता है। भूगोलविद् इसे अत्यंत धीमी प्रक्रिया मानते है।
तापमान परिवर्तन, प्रवाहित जल की क्रिया, पवल, हिमनद और अपघटन की अन्य क्रियाएँ, भी ऐसे तत्व हैं, जो मृदा निर्माण में संयोग करती है।
पहाड़ी क्षेत्रों में समोच्च जुताई द्वारा मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में पट्टिका कृषि से मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। रसायन का उचित उपयोग कर मृदा संरक्षण को रोका जा सकता है। रसायनों के लगातार उपयोग से मृदा के पोषक तत्त्वों में कमी होने लगती है। ये पोषक तत्त्व जल, वायु, केंचुआ और अन्य शूक्ष्म जीव हो सकते हैं।
एंड्रीन नामक रसायन मेंढ़क के प्रजनन पर रोक लगा देता है जिससे कीटों की संख्या बढ़ जाती है जिसके कारण फसलों की हानि होती है। रासायनिक उर्वरक की जगह जैविक खाद का उपयोग कर मृदा क्षरण को रोका जा सकता है।
मृदा क्षरण को रोकने के लिए वृक्षा रोपण महत्वपूर्ण है। वृक्ष के पत्तियों से प्राप्त ह्युमस मृदा की गुणवत्ता को बढ़ाते हैं।
प्रश्न 3. भारत में अत्यधिक पशुधन होने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में इसका योगदान लगभग नगण्य है। स्पष्ट करें।
उत्तर- भारत पशुधन के मामले में विश्व के अग्रणीं देशों में शामिल किया जाता है। किन्तु, यहाँ स्थाई चारागाह के लिए बहुत कम भूमि उपलब्ध है जो पशुधन के लिए पर्याप्त नहीं है जिसके कारण पशुपालन पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ता है। पशुओं की चारा की समस्या हमेशा बनी रहती है। भारत के जिन भागों में पशुओं की संख्या अधिक हैं। उस भाग में कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़ होता रहता है।
भारत में पशुओं को पालने का तरीका काफी अलग है। फिर किसानों, पशुपालनों के बीच पशुओं के इलाज, रखरखाव का भी तकनीक नहीं है, जो अत्यधिक पशुधन होने के वावजूद अर्थव्यवस्था में योगदान नगण्य है।
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